बिमल रॉय 12 july । Bimal roy। हिंदी सिनेमा में क्रांतिकारी बदलाव के सूत्रधार

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विषय-सूची

  • क्यों किया जाता है याद
  • हिन्दी फिल्म जगत में उनकी भूमिका
  • उपलब्धियाँ
  • कैसा था बचपन
  • उनके जीवन से सीखे ये बातें
  • क्यों किया जाता है याद

    बिमल राय भारतीय फिल्म उद्योग के उन महानतम निर्देशकों में गिने जाते है जिन्होंने हिन्दी सिनेमा के कलात्मक और व्यावसायिक सिनेमा के बीच के अन्तर को अपनी संवेदनशील शैली से भरकर एक अलग स्तर पर ला खड़ा किया है। उनकी निम्न व गरीब वर्ग की सामाजिक संघर्ष को झेलती जीवनशैली को दर्शाती यथार्थवादी फिल्में एक तरह से समाज का आईना कही जा सकती है। काबुलीवाला, दो बीघा जमीन, बंदिनी और मधुमती जैसी फिल्में उनकी बेहतरीन फिल्में रही। इतावली फिल्म विक्टोरिया डी सिका से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा जमीन जैसी यथार्थवादी फिल्म बनाई। उन्होंने अपने फिल्मी कैरीपर में कई सारे फिल्म फेयर अवार्ड, राष्ट्रीय व अन्तरर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। हिन्दी सिनेमा में उनके इस पोगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता ।

    हिन्दी फिल्म जगत में उनकी भूमिका

    उनकी यथार्थवादी फिल्में समाज का आइना कही जाती है। उनकी करिश्माई फिल्म निर्माण शैली सच में फिल्म निर्माताओं के लिए प्रेरणास्त्रोत है। समाज में फैली छुआछुत जैसी सामाजिक बुराई को उन्होंने अपने फिल्मों के जरिए दिखाने का साहस किया उसी के फलस्वरूप या कहे हिन्दी सिनेमा में समाज की बुराईयों, कुरीतियों को उजागर करने की पहल कर सकी। मनोरंजन के साथ संवेदनशील विषय को बेहद सरल अंदाज में प्रस्तुत करने की उनकी यही अद्वितीय कला उन्हें शीर्ष के फिल्मकारों की श्रेणी में ले आई। तो आइए दोस्तों उनकी जन्मतिथि पर हम आज उनकी इस फिल्मों की लम्बी यात्रा के बारे में जानेंगे। उनकी फिल्म मधुमती में मधु के किरदार की नैसर्गिक विशेषता ने अभिनेत्री वैजयंती माला को एक उम्दा अभिनेत्री के रूप में उभारा | पुनरजन्म पर आधारित यह परख फिल्म दर्शको के मन को छू गई और सफलतम फिल्म साबित हुई।

    उपलब्धियाँ

    1959 में मधुमति, 1960 में सुजाता और 1961 में परख फिल्म के लिए उन्हें एक के बाद एक पुरस्कार मिले। इसके बाद 1969 में बनी फिल्म बंदिनी के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशन का फिल्मफेयर अवार्ड भी प्राप्त हुआ था। 1954 में दो बीघा जमीन,1955 मे परिणीता, 1956 में बिराज बहू, 1959 में मधुमती, 1960 में सुजाता और 1964 में बंदिनी के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर अवार्ड मिला। और अरे हां दोस्तों उनकी एक करिश्माई फिल्म देवदास के बारे में तो आप जानते ही होंगे जिसने रातों रात दीलिप साहब को ट्रेजेडी किंग के रूप में विख्यात कर दिया था। उनकी फिल्मों में त्याग, सामाजिक कुरीतियां, संघर्ष, और वास्तकिता के बीच बनते बिगड़ते सामाजिक रिश्तों का तानाबाना एक नई प्रकार का करिश्माई प्रभाव उत्पन्न करता है दर्शकों के दिलो-दिमाग पर । तो दोस्तो ! ये कहना बिल्कुल भी अतिश्योक्ति न होगी कि उनकी फिल्में सिनेमा के के रूप में जानी जाती रहेगी आने वाली पीढ़ियों के लिए। और सच कहे तो ऐसा मुकाम भारतीय फिल्म उद्योग स्कूल में बहुत ही कम फिल्म निर्देशकों को प्राप्त है।

    कैसा था बचपन

    उनका जन्म ढाका के पास एक गांव है सुआपुर वहां एक जमीदार परिवार में 12 जुलाई 1935 को हुआ था। वे जब महज 26 साल के थे उन्होंने न्यू थियेटर्स से अपना फिल्मी कैरीयर शुरू किया और उस समय के नामी निर्देशक नितिन बोस के सहायक कैमरामैन के रूप में अपनी पारी की शुरुआत की और देखते ही देखते वे सहायक कैमरामेन से एक स्वतंत्र कैमरामेन बन गए जब उन्हें प्रमयेश चन्द्र बरुआ की फिल्म मुक्ति की सिनेमेटोग्राफी मिल गई तो फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और आठ साल तक मेहनत करने के बाद डायरेक्टर बनने का लम्बा सफर तय कर लिया।

    उनके जीवन से सीखे ये बाते

    मात्र 55 साल की उम्र में 8 जनवरी 1965 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया उनकी फ़िल्मों में यथार्थवादी जीवन की झलक जो देखने को मिलती है उससे हमें यही सीखना चाहिए दोस्तों की हमें अपना काम किसी के विचारों से प्रभावित होकर नहीं करना चाहिए बल्कि यथार्थवादी दृष्टिकोण से अपने सहज रूप से करना चाहिए।अपने काम में हमेशा कुछ न कुछ नयापन लाने का साहस करना धीरे धीरे हमे उस मुकाम तक पहुंचा सकता है जिसके बारे में हमने कभी सोचा न हो । हमें इससे कुछ मिले न मिले सन्तुष्टि जरूर मिल सकती है दोस्तो।
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